Friday, January 15, 2010





   


Saturday, January 9, 2010

चतुर अधरों पर थिरकती बांसुरी होती अगर

लय सुरों की मधुर लहरी




मैं सुनाती गीत निर्झर,


चतुर अधरों पर थिरकती बांसुरी होती अगर!






तोड़कर तटबंध उन्नत


रिक्तता को पूर्ण करती


मेटती चलती निराशा


मैं उफनकर भी सिमटती,


शगुन लिख देती दुवारे -हाथ हल्दी में डुबोकर


Doob  अच्छत से भरी मैं आंजुरी होती अगर!






मैं खगी सी मुक्त उडती


गुंजती अमराईयों को


मन मुकुर में बंद करती


सांझ की परछाईयों को,


महमहाती वाटिका में मैं सुघड़ श्रुंगार बनकर


रूप-रंजित सुरभि पूरित पांखुरी होती अगर!






भीगते न नयन किंचित


सुन किसी का करुण क्रंदन


मानवी आकांक्षाएं


तोडती स्वजनित बंधन.


तृप्त तृष्णा पावं धरती वर्जनाओं की सतह पर


वृत्तियाँ मुझमे अगर कुछ आसुरी होतीं अगर!






"असीम"

वर्षे! तुम आंसू हो या जल

गगन धरा की सेतु सुंदरी,पूंछ रहा है तुमसे भूतल



वर्षे! तुम आंसू हो या जल!






सुन चातक की करुण पुकारें


तू उमड़ी फिर उठी गगन में,


फिर कोई मछली तडपी क्या


जो बिजली चमकी अंग-अंग में,


या दादुर का क्रंदन सुन-सुन


फूट-फूट रोया बादल!






वर्षे! तुम आंसू हो या जल!






धरती के प्यासे अधरों ने


तुम्हे पुकारा फिर फिर भू पर


नेह-निमंत्रण तुम्हे दिया क्या


पवन झकोरों ने भी छूकर,


या फिर तुमको खींच बुलाया


रुंधे स्वरों में सागर विह्वल!






वर्षे! तुम आंसू हो या जल!






फिर से तट पर बंधी नावं ने


भेज दिया तुमको आमंत्रण


सूखी नदियाँ आ लहरा दो


भीग जाए तन-मन का कण कण ,


ललचाया नाविक फिर लखकर


कजरारे मेघों का आँचल!


वर्षे! तुम आंसू हो या जल!!






"असीम"

लौटी नावें मंथर मंथर सांझ हुई

लौटी नावें मंथर मंथर सांझ हुई


मछुवारे ने जाल समेटा सांझ हुई

लौटी नावें मंथर मंथर सांझ हुई !!



प्राची सन्देश आँख में लेकर लौटे बन पांखी

पश्चिम नयन टिकाये बैठा प्रिय मिलन का चिर अभिलाषी!

अधरों पर अरुणाई आई प्रहर युगल का लख मधु गोपन

धरती अम्बर मंद हास में महामिलन के बनते साखी!!



"चकवी की कम्पित आँखों में सांझ हुई"

लौटी नावें मंथर मंथर सांझ हुई !!



बूढ़े बरगद की परछाई बढ़ी देखने मिलन सुहाना

याद आ गए खुले चंचु तब लौटे पंछी लेकर दाना,

कंधे पर झोली लटकाए उंगली में बन्दर की डोरी

शीश झुकाए चला मदारी बुनता कल का ताना बाना!!



"बंजारन के थके पावं में सांझ हुई"

लौटी नावें मंथर मंथर सांझ हुई !!



दीपक लेकर चला पुजारी हरने मंदिर का सूनापन

बजी घंटियाँ क्षीण स्वरों में गूँज रहा हर घर का आँगन,

कर सोलह श्रुंगार उदासी त्याग अधर पर स्मित लेकर

चली रिझाने भोगी मन को नगर वधु की नियति सनातन!!



"सिसक-सिसक कर बाजे घुंघरू सांझ हुई"

लौटी नावें मंथर मंथर सांझ हुई !!



"असीम"

Wednesday, January 6, 2010

फिर बबूलों की तले
उगने लगीं झाराबेरियां
फिर हवाएं जंगलों की
चुगलियाँ करने लगी हैं!

टूटता अब मौन स्वर का
मुखर सन्नाटा हुआ है
गंध में बहका दिवस भी
सूखकर काँटा हुआ है,
दिग अधर की चिर हंसी मनहूसियत ने ले लिया
पी समंदर का गरम जल ... मछलियाँ मरने लगी हैं!!

फिर हवाएं जंगलों की..चुगलियाँ करने लगी हैं!!

लिख रही अमराईयों में
कूक कोयल की उदासी
स्वेट-केशा हो गयी ऋतु
आस में ही चिर पियासी,
फिर घटा हिम चूम कर करने लगी अठखेलियाँ
विरहिणी के नयन में भी बदलियाँ घिरने लगी हैं!

फिर हवाएं जंगलों की..चुगलियाँ करने लगी हैं!!


हैं सिकुड़ते प्रहार प्यासे
पी कहाँ की तेर सुनकर
जागती हैं कामनाएं
नेह के भ्रमजाल बुनकर,
सो गयी फिर विवश संध्या पावं की लाख बेड़ियाँ
विरह में तपती दुपहरी सिसकियाँ भरने लगी है!

फिर हवाएं जंगलों की..चुगलियाँ करने लगी हैं!!

"असीम"

अतीत.....

याद आता है बीता हुआ कल,
वो तख्ती ..... खड़िया मिटटी की सोंधी खुशबू!! मॉस..साब ! की ऐनक ...
आह .... अलकों की कोर पर बसे वो दिन!!
......
बाउजी...और उनकी साइकिल!! अम्मा की साड़ी.... भाई का घुनघुना!! गाँव की पनघट!!
लढ़िया.... बैलगाड़ी..... ललकी गाय का दूध!!
आलू के खेत.... सर की दो चोटियाँ... गाल तक टपक आया तेल !!
अलमस्त..... बेफिक्र!!
...
घुल गया है कहीं.... पिघलती बरफ सा!!
याद .... सिर्फ याद!!
बिल्लेसुर बकरिहा!! गयादीन हरवाहा.... सुरपतिया की झोपडी!!
....
मेले के दिन दादा की उंगली......
दादी का चश्मा!!
..
बुखार का ब्रेड .... डॉक्टर की उयिवाली सुई....
..
याद आता है.... बड़के बरगद का झूला!
वो सखियाँ....
वो रिमझिम फुहार!
मिटटी के घरौंदे........ बथुवे के साग की सोंधी महक!
दादी का धागेवाला चश्मा.. बिना टांग का -लंगड़ा!!
कच्ची अमिया...
बिल्लेसुर बकरिहा के बकरी के छउने....
काली माई का चौरा.....
....
खो गया सब!!
खो गयी वो अलमस्त हंसी...
वो बेफिक्र शरारत!!
**अब हम यंत्र हो गए हैं!!**
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