Saturday, January 9, 2010

चतुर अधरों पर थिरकती बांसुरी होती अगर

लय सुरों की मधुर लहरी




मैं सुनाती गीत निर्झर,


चतुर अधरों पर थिरकती बांसुरी होती अगर!






तोड़कर तटबंध उन्नत


रिक्तता को पूर्ण करती


मेटती चलती निराशा


मैं उफनकर भी सिमटती,


शगुन लिख देती दुवारे -हाथ हल्दी में डुबोकर


Doob  अच्छत से भरी मैं आंजुरी होती अगर!






मैं खगी सी मुक्त उडती


गुंजती अमराईयों को


मन मुकुर में बंद करती


सांझ की परछाईयों को,


महमहाती वाटिका में मैं सुघड़ श्रुंगार बनकर


रूप-रंजित सुरभि पूरित पांखुरी होती अगर!






भीगते न नयन किंचित


सुन किसी का करुण क्रंदन


मानवी आकांक्षाएं


तोडती स्वजनित बंधन.


तृप्त तृष्णा पावं धरती वर्जनाओं की सतह पर


वृत्तियाँ मुझमे अगर कुछ आसुरी होतीं अगर!






"असीम"

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