Wednesday, January 6, 2010

फिर बबूलों की तले
उगने लगीं झाराबेरियां
फिर हवाएं जंगलों की
चुगलियाँ करने लगी हैं!

टूटता अब मौन स्वर का
मुखर सन्नाटा हुआ है
गंध में बहका दिवस भी
सूखकर काँटा हुआ है,
दिग अधर की चिर हंसी मनहूसियत ने ले लिया
पी समंदर का गरम जल ... मछलियाँ मरने लगी हैं!!

फिर हवाएं जंगलों की..चुगलियाँ करने लगी हैं!!

लिख रही अमराईयों में
कूक कोयल की उदासी
स्वेट-केशा हो गयी ऋतु
आस में ही चिर पियासी,
फिर घटा हिम चूम कर करने लगी अठखेलियाँ
विरहिणी के नयन में भी बदलियाँ घिरने लगी हैं!

फिर हवाएं जंगलों की..चुगलियाँ करने लगी हैं!!


हैं सिकुड़ते प्रहार प्यासे
पी कहाँ की तेर सुनकर
जागती हैं कामनाएं
नेह के भ्रमजाल बुनकर,
सो गयी फिर विवश संध्या पावं की लाख बेड़ियाँ
विरह में तपती दुपहरी सिसकियाँ भरने लगी है!

फिर हवाएं जंगलों की..चुगलियाँ करने लगी हैं!!

"असीम"

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